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इन्द्रो॒ हरी॑ युयु॒जे अ॒श्विना॒ रथं॒ बृह॒स्पति॑र्वि॒श्वरू॑पा॒मुपा॑जत। ऋ॒भुर्विभ्वा॒ वाजो॑ दे॒वाँ अ॑गच्छत॒ स्वप॑सो य॒ज्ञियं॑ भा॒गमै॑तन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro harī yuyuje aśvinā ratham bṛhaspatir viśvarūpām upājata | ṛbhur vibhvā vājo devām̐ agacchata svapaso yajñiyam bhāgam aitana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। हरी॑। यु॒यु॒जे। अ॒श्विना॑। रथ॑म्। बृह॒स्पतिः॑। वि॒श्वऽरू॑पाम्। उप॑। आ॒ज॒त॒। ऋ॒भुः। विऽभ्वा॑। वाजः॑। दे॒वान्। अ॒ग॒च्छ॒त॒। सु॒ऽअप॑सः। य॒ज्ञिय॑म्। भा॒गम्। ऐ॒त॒न॒ ॥ १.१६१.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:161» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (इन्द्रः) बिजुली के समान परमैश्वर्यकारक सूर्य (हरी) धारण आकर्षण कर्मों की विद्या को (युयुजे) युक्त करे, (अश्विना) शिल्पविद्या वा उसकी क्रिया हथोटी के सिखानेवाले विद्वान् जन (रथम्) रमण करने योग्य विमान आदि ज्ञान को जोड़ें, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों की पालना करनेवाले सूर्य के समान तुम लोग (विश्वरूपाम्) जिसमें समस्त अर्थात् छोटे, बड़े, मोटे, पतरे, टेढ़े, बकुचे, कारे, पीरे, रङ्गीले, चटकीले रूप विद्यमान हैं उस पृथिवी को (उप आजत) उत्तमता से जानो, (ऋभुः) धनञ्जय सूत्रात्मा वायु के समान मेधावी (विभ्वा) अपने व्याप्ति बल से (वाजः) अन्न को जैसे वैसे (देवान्) विद्वानों को (अगच्छत) प्राप्त होओ और (स्वपसः) जिनके सुन्दर धर्मसम्बन्धी काम हैं ऐसे हुए तुम (यज्ञियम्) जो यज्ञ के योग्य (भागम्) सेवन करने योग्य भोग है उसको (ऐतन) जानो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो बिजुली के समान कार्य को युक्त करने, शिल्पविद्या के समान सब कार्यों को यथायोग्य व्यवहारों में लगाने, सूर्य के समान राज्य को पालनेवाले, बुद्धिमानों के समान विद्वानों का सङ्ग करने और धार्मिक के समान कर्म करनेवाले मनुष्य हैं, वे सौभाग्यवान् होते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या इन्द्रो हरी युयुजेऽश्विना रथं युञ्जीयातां बृहस्पतिरिव यूयं विश्वरूपामुपाजत। ऋभुर्विभ्वा वाजइव देवानगच्छत स्वपसो यूयं यज्ञियं भागमैतन ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) विद्युदिव परमैश्वर्यकारकः सूर्यः (हरी) धारणाकर्षणविद्ये (युयुजे) युञ्जीत (अश्विना) शिल्पविद्याक्रियाशिक्षकौ (रथम्) रमणीयं यानम् (बृहस्पतिः) बृहतां पतिः सूर्यइव (विश्वरूपाम्) विश्वानि सर्वाणि रूपाणि यस्यां पृथिव्याम् (उप) (आजत) विजानीत (ऋभुः) धनञ्जयो सूत्रात्मा वायुरिव मेधावी (विभ्वा) विभुना (वाजः) अन्नम् (देवान्) विदुषः (अगच्छत) प्राप्नुत (स्वपसः) शोभनानि धर्म्याणि कर्माणि येषान्ते (यज्ञियम्) यो यज्ञमर्हति तम् (भागम्) भजनीयम् (ऐतन) विजानीत ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्युद्वत्कार्ययोजकाः शिल्पविद्या इव सर्वकार्यप्रणेतारः सूर्यवद्राज्यभर्त्तारः प्राज्ञवद्विदुषां सङ्गन्तारो धार्मिकवत्कर्मकर्त्तारो मनुष्याः सन्ति ते सौभाग्यवन्तो जायन्ते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी विद्युतप्रमाणे कार्याला युक्त करणारी, शिल्पविद्येप्रमाणे सर्व कार्यांना यथायोग्य व्यवहारात आणणारी, सूर्याप्रमाणे राज्याचे पालन करणारी, बुद्धिमानाप्रमाणे विद्वानांची संगती करणारी व धार्मिकांप्रमाणे कर्म करणारी माणसे आहेत. ती सौभाग्यवान असतात. ॥ ६ ॥